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देशी मुर्गी 

पांच साल पहले की बात है, जब मैंने सामाजिक क्षेत्र में काम करना शुरू ही किया था। मैं बच्चों को सरकारी स्कूल में पढ़ाने के लिए संघर्ष कर रहा था क्योंकि कोई मेरी बात नहीं सुन रहा था। इसलिए, मैंने अपने सलाहकार के साथ चुनौती साझा की, जो एक राष्ट्रीय स्तर के संगठन (Organization) के बड़े पैमाने के कार्यक्रम में काम करने वाले एक वरिष्ठ प्रबंधक (Manager) भी थे।

उन्होंने कहा, ‘सरकारी स्कूल के बच्चे देशी मुर्गी की तरह होते हैं। उन्हें Control करना या उनसे दोस्ती करना  आसान नहीं होगा”। उन्होंने इसे गर्व की भावना के साथ कहा। मैंने यह भी देखा कि उन्हे शहर के lifestyle पसंद नहीं था, खासकर जैसे बच्चे लंबे समय तक एक ही रूम में बैठ कर पढ़ते रहते थे  या मोबाईल का इस्तमल करते रहते थे | जब वो शहर में अपने रिस्तेदार के पास गए तो घर के बच्चे उन्हे “hi , hello ” भी नहीं करने आए |

मैंने उस समय उनकी बातों को अनदेखा कर दिया क्योंकि मैं उसी System  में बड़ा हुआ था और मुझे यह बात उतनी बड़ी नहीं लगी |

लेकिन , अर्ध-ग्रामीण (semi-rural ) भारत में काम करने के कुछ वर्षों के बाद, मुझे उनकी कुछ बात सही लग ने लगी |

मैं एक डॉक्यूमेंट्री वीडियो (फूड इंक-नेटफ्लिक्स) देख रहा था, जिसमें दिखाया गया था कि किस तरह फार्म मुर्गों को कम जगह में पाला जाता है, ताकि लाभ को अधिकतम किया जा सके और सभी मनुष्यों के लिए खाद्य आपूर्ति बढ़ाई जा सके। अपने जीवनकाल में मुर्गों-मुर्गियों को पंख फैलाने या पैर हिलाने तक की जगह नहीं मिलती। डॉक्यूमेंट्री के अनुसार, मुर्गियों का मस्तिष्क ऐसे वातावरण में विकसित होने के लिए नहीं बना हुआ था और इसलिए वे गंभीर अवसाद (Severe depression) और मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों से पीड़ित थे।

इसने मुझे सोचने पर मजबूर  कर दिया कि क्या मैं भी उस फार्म चिकन की तरह था जो कम आय वाले शहरी समुदाय में बड़ा हुआ। न तो स्कूल में और न ही घर में खेलने के लिए ज्यादा जगह थी। एक ऑटो-रिक्शा में स्कूल जाता था जिसमें चार बच्चों के बैठने के लिए 10-12 बच्चे होते थे। छोटी कक्षा में पचास से अधिक बच्चे थे जहा  मैंने पूरा दिन की दीवार को घूरते हुए बिताया करता था  और किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता था । जीवन अस्त-व्यस्त था और वयस्क (Adult) उस खाली जगह को खरीदने के लिए हमेशा गुस्से में रहते थे।

दूसरी ओर, जब मैं एक गाँव के प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक के रूप में काम  किया , तो मैंने देखा कि बच्चे पेड़ों पर चढ़ने, झील में तैरने, बंदरों और कुत्तों का पीछा करने और परिवार के साथ शारीरिक श्रम करने में घंटों समय बिताते हैं। उनके पास सुविधाओं की कमी थी, लेकिन  बच्चों के जीवन में स्वतंत्रता और आत्मविश्वास (Self Confidence) था , जो मेरे बड़े होने समय  में नहीं था।

सभ्यता की प्रगति हमेशा शहरों की ओर रही है जहा  बिजली, पानी, स्वास्थ्य सेवा और अब इंटरनेट जैसी बेहतर इंटरकनेक्टिविटी और सुविधाएं उबलब्ध होती है । इसने मनुष्यों की जीवन प्रत्याशा (लाइफ स्पैन) को बेहतर बनाने में काफी मदद की है और एक अधिक शिक्षित आबादी का निर्माण किया है।

लेकिन क्या इस विकास और सभ्यता को अपनाने के लिए हमने आजादी खोने  और परेशान रहने से इसकी कीमत चुकाई है ?

यह विचार गाँव के जीवन को रूमानी बनाने का नहीं है क्योंकि गाँव में भी कई तरह की असमानताएँ मौजूद हैं। लेकिन  हमें प्रगति के किसी भी विचार पर आंख मूंद कर विश्वास नहीं कर लेना चाहिए। विशेष रूप से जो प्रगति केवल आर्थिक विकास, निर्मित सड़कों, या कार्यक्रम के माध्यम से प्रभावित बच्चों की संख्या के संदर्भ के रूप में मापा जाता है।

जैसे कॉर्पोरेट्स , जहां एक सामाजिक कार्यक्रम के माध्यम से 10 लाख बच्चों तक पहुंचना एक महान विजन माना जाता है। एसा विजन जिसे मेरे सलाहकार जैसे एक मध्य प्रबंधक द्वारा समर्थित किया जाता है, जो शहरी  जीवन के तरीके से घृणा  करता है, जहां एक बच्चा सिर्फ एक डेटा बिंदु है और प्रगति बच्चों को मुख्यधारा (Mainstream) से जोड़कर एक परेशान और दुखी इंसान बनाना है |

About Monkey Sports

Monkey Sports एक एनजीओ है जो बच्चों के साथ काम करता है | हमारे प्रोग्राम का नाम संगवारी है जिसमे कम्यूनिटी में रहने वाले युवा बच्चों के साथ खेल का कार्यक्रम कराते है | हमारे प्रोग्राम का मुख्य उदेश्य बच्चों के मानसिक और सरीरिक विकाश करना है जिससे वो एक सुखमय जीवन जी सके|

लेखक : कुशल अग्रवाल

हिन्दी अनुवाद : तृप्ति यादव

Kushal_Headshot

Author:

Kushal is the founder of Monkey Sports and has a total of 5 years of experience in the education development sector. His primary interest is Social Emotional Learning to improve educational outcomes for primary and middle school children.

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